शक्ति स्रोत भगवती माँ दुर्गा - नवरात्री महत्व एवं दुर्गा पूजन विधि |
।। ऊँ नमश्र्चण्डिकायै।।
भारत भूमि एक पवित्र
संस्कृति से सम्पन्न कर्म भूमि ही नहीं, बल्कि देव भूमि भी है, जहाँ देवी- देवताओं के अवतरण की कई महत्वपूर्ण पौराणिक
कथाएं सुविख्यात हैं। सम्पर्ण विश्व, सूर्यादि ग्रह, नक्षत्र तथा पंच तत्व सहित नाना विधि संसार सत्ता के सर्वोपरि इच्छा द्वारा ही
चलायमान हैं। यह ध्रुव सत्य है कि बिना सर्वोपरि शक्ति (परम ब्रह्म) की इच्छा के कुछ
भी संभव नहीं है। आज भले ही आधुनिकता की चकाचैंध में कुछ लोग अपनी अज्ञानता को बलपूर्वक
थोपने की कोशिशें कर हों, कि देवी-देवता नाम की कोई सत्ता व ताकत नहीं हैं। किन्तु
यह सच है कि कहीं न कहीं उन्हें सर्वोपरि सत्ता का एहसास जरूर होता है। हिन्दू धर्म
को सनातन धर्म भी कहा जाता है, जो आदि काल से है, जिसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति व उसके विस्तार की विशुद्ध जानकारी प्राप्ति
होती है, हमारे पौराणिक व वैदिक धर्म ग्रंथ इस बात के गवाह हैं, जब-जब धरा में धर्म की क्षति होती है तथा दुराचार, अपराध, रूपी असुरों की वृद्धि होती हैं। तो भगवान विभिन्न शरीरों में उत्पन्न होकर उनका
संहार करके सज्जनों की पीड़ा हरते हैं और धर्म को स्थापित करते हैं।
इसी प्रकार जब महिषासुरादि दैत्यों के अत्याचार से समस्त भू व देव लोक पीडित हो
उठा तो परम पिता परमेश्वर की आज्ञा से देव गणों ने एक अद्भुत अजेय शक्ति का सृजन किया, तथा उसे नाना विधि अमोघ अस्त्र-शस्त्र प्रदान कर उसे अजेय और जन कल्याणकारी बना
दिया। जो आदि शक्ति माँ जगदम्बा के नाम से अखिल ब्रह्माण्ड में सुविख्यात हुईं। माँ
दुर्गा देव व भू लोक की न केवल रक्षक हैं, अपितु सभी के लिए वांछित कल्पतरू के रूप में हैं। शिव व शक्ति की परम कल्याणकारी
कथाओं का अति मनोरम वर्णन देवी भागवत, सूर्य, शिव, श्रीमद्भागवत आदि पुराणों मे हैं। बिना शक्ति की इच्छा के इस संसार में एक कण भी
नहीं हिल सकता सर्वज्ञ दृष्टा भगवान शिव भी (इ की मात्रा, शक्ति) के हटते ही शव (मुर्दा) स्वरूप हो जाते हैं। भगवती दुर्गा ने नौ दिनों में
जयंती, मंगलाकाली, भद्रकालीकपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा, स्वधा में प्रकट होकर
अहंकार में डूबें हुए शुम्भ-निशुम्भ, महिषासुर,
रक्तबीज, जैसे अनेकों दैत्यों का बध कर देवताओं को उनका यज्ञ भाग पुनः दिलाया तथा भू व देव
लोक में धर्म की स्थापना कर मानव का परम कल्याण किया।
हमारे शुभेच्छ वैदिक ऋषियों ने कल्याण प्राप्त करने हेतु मानव को इच्छित फल हेतु
माँ दुर्गा की पूजा अर्चना का क्रम बताया है, जिसमें राजा सुरथ से महर्षि मेधाने कहा था आप उन्हीं भगवती की शरण ग्रहण कीजिए
जो आराधना से प्रसन्न होकर मनुष्यों को भोग, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती हैं। इसी अनुसार अर्चना करके राजा सुरथ ने अखण्ड साम्राज्य
प्राप्त किया। जब से देवताओं ने अपने तप व तेज का संग्रह करके अद्भुत दिव्य रूपी माँ
दुर्गा को अवतरित किया तब से आज तक अनगिनत लोगों नें माँ दुर्गा की अर्चना करके मनोवांछित
फल को प्राप्त किया। मनुष्य क्या? माँ दुर्गा की अर्चना तो देव समूह
भी करते हैं। साक्षात प्रभु श्रीराम ने भी जगतजननी भगवती की आराधना नवरात्रों के विशेष
पर्व मे कर दुष्ट रावण का वध किया था।
सम्पूर्ण भारत में चैत्र
शुक्ल प्रतिपदा तथा आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को प्रतिवर्ष नवरात्री के पर्व को भगवती
की आराधना के रूप मे मनाया जाता हैं। जिसे वसन्त और शरदीय नवरात्रा भी कहते हैं। इसके
अतिरिक्त दो गुप्त नवरात्रे भी होते हैं कुल मिलाकर वर्ष भर में चार महत्वपूर्ण पर्व
दुर्गा अर्चना के होते हैं। शरद् ऋतु का आगमन कृषि प्रधान भारत देश के लिए एक उत्सव
के समान हैं। इन दिनों रवी की फसलों की बुआई का प्रारम्भ हो जाता है तथा खरीफ की फसल
भी समृद्धि (धान्य) की सूचना देती है। जिससे कृषक वर्ण सहित समूचा भारत वर्ष प्रसन्न
होकर परम कल्याणकारी शक्ति स्रोत माँ जगतजननी की नौ दिन पर्यन्त वैदिक रीति से आराधना
करता है। जिसके कारण इसे नवरात्री (नौ रात्रि) कहा जाता है, जिसके फलस्वरूप मानव दुःख ,दरिद्रता, रोग, बाधाओं से मुक्त हो जाता है और मनोवांछित फल प्राप्त करता है। प्रतिवर्ष की
भांति इस वर्ष शरद् नवरात्रों का प्रारम्भ और कलश स्थापन 13 अक्टूबर सन् 2015 विक्रमी संवत् 2072, दिन मंगलवार, तिथि आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से
हो रहा है। माँ “जगज्जननी की अर्चना का सबसे प्रामाणिक
व श्रेष्ठ ग्रन्थ “दुर्गा सप्तशती” है। जिसमें सात सौ श्लोकों के
माध्यम से देवी से प्रार्थना की गई है, इस पाठ के प्रभाव मात्र से माँ
साधकों को इच्छित फल देती हैं। ऐसे साधकों को जिनके पास कम समय हैं या वे स्वतः ही
कम समय में पाठ सम्पन्न करना चाहते हैं तो सात सौ श्लोकों के स्थान पर “सप्तश्लोकी दुर्गा” का पाठ करके मनोवांछित फल हासिल कर सकते हैं। इस लेख में आप देवी के नौ रूपों
की संक्षिप्त व्याख्या व पाठ का फल, पूजा का महत्व, पूजन सामाग्री, व्रत के नियम, खाद्य पदार्थ, पाठ की विधि, षोड़षोपचार की विधि, हवन,
कुण्ड का विधान व हवन की सामाग्री सहित सभी वांछित विषयों को सार रूप में क्रमशः अध्ययन कर सकते हैं
और देवी आदि शक्ति की आराधना वैदिक विधि से सम्पन्न कर अपने मनोवांछित फल को प्राप्त
कर सकते हैं। इस वर्ष नवरात्रि का क्रम इस प्रकार हैः-
प्रथम दिनः पहला नवरात्रा वि0 सं 2072, तदनुसार, शदर ऋतु, आश्विनी मास, शुक्ल पक्ष, 13 अक्टूबर 2015, तिथिः शुक्ल पक्ष प्रतिपदा, वार, मंगलवार पूजा व घटस्थान का समयः अभिजित मुहूर्त सुबह 11.41 से। प्रथम दिन की देवीः- माँ शैलपुत्री।
दूसरा दिनः दूसरा नवरात्रा, तारीख, 14 अक्टूबर 2015, तिथिः शुक्ल द्वितीया, वारः बुधवार, दूसरे दिन की देवीः- माँ ब्रह्मचारिणी है।
तीसरा दिन:तृतीय नवरात्रा, तारीखः 15 अक्टूबर 2015,तिथिः शुक्ल तृतीया, वारः बृहस्पतिवार, तीसरे दिन की देवीः- माँ चंद्रघण्टा है।
चतुर्थ दिन: चतुर्थ नवरात्रा 16 अक्टूबर 2015,तिथिः शुक्ल चतुर्थी,वारः शुक्रवार, चतुर्थ दिन की देवीः- माँ कूष्माण्डा हैं।
पाँचवां दिनः पंचम नवरात्रा, तारीखः 17 अक्टूबर 2015,तिथिः शुक्ल पंचमी वार, शनिवार पाँचवें दिन की देवीः- माँ स्कन्दमाता हैं।
छठवां दिन: षष्टम् नवरात्रा, 18अक्टूबर 2015, तिथिः शुक्ल, षष्ठी, वारः रविवार छठवें दिन की देवीः-माँ
कात्यायनी हैं।
सातवां दिन: सप्तम् नवरात्रा, 19अक्टूबर, 2015, तिथिः शुक्ल, सप्तमी,वार, सोमवार सातवें दिन की देवीः- माँ कालरात्रि हैं।
आठवां दिन: अष्टम् नवरात्रा, 20 अक्टूबर 2015,तिथिः शुक्ल, अष्टमी, वार, मंगलवार आठवें दिन की देवीः- माँ महागौरी हैं।
नवां दिन: नवम् नवरात्रा 21 अक्टूबर 2015,तिथिः शुक्ल नवमी, वार, बुधवार, नवें दिन की दुर्गाः- सिद्धिदात्री है।
नोटः नवमी तिथि की
वृद्धि हो रही है। जो 22 अक्टूबर को दिन के 12 बजे तक होगी।
नोटः प्रथम नवरात्रि प्रतिपदा से नवमी तक प्रत्येक दिन माँ
की पूजा सभी मण्डलस्थ देवी-देवताओं से सहित षोडषोपचार विधि से बडे श्रद्धा भक्ति से
करें। पूजा सम्पन्न होने पश्चात् प्रसाद वितरित करें तथा नव कन्याओं को साक्षात् देवी
का प्रतिरूप मानते हुए और एक बालक को खीर, हलुआ, पूरी आदि का भोजन श्रद्धा सहित करवा कर उन्हें वस्त्राभूषण द्रव्य आदि भेंट दें।
यदि आप व्रत रखते या रखती हैं तो आपका पारण दशमी के दिन होगा। इस नवमी तिथि की वृद्धि
होने के कारण दसवें दिन पारण होगा यानी व्रत खुलेगा।
माँ जगदम्बा के नव रूपः-
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति
चतुर्थकम्।। पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति
च। सप्तमं कालरात्रि महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः। उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव
महात्मना।।
माँ जगदम्बा का प्रथम रूप शैलपुत्री के नाम से सुप्रसिद्ध है, इन्होंने पर्वतराज श्री हिमालय के यहाँ जन्म लिया तथा यह शैलपुत्री के नाम से सुविख्यात
हुई। इन माँ का वाहन वृषभ (बैल) है, इन्होंने दाये हाथ में त्रिशूल तथा बाये हाथ में पद्म
(कमल) को धारण किया हुआ है। इनकी कथा और कृपा बड़ी ही रोचक हैं, जिन्हें देवी भागवत आदि पुराणों मे पढ़ा जा सकता है।
माँ जगदम्बा के द्वितीय रूप को माँ ब्रह्मचारिणी के रूप से जाना जाता है।
इन्होंने दिव्य तप का अनुसरण कर दैत्यों के समूह को नष्ट किया तथा भक्तों पर वरद हस्त
रखे हुए हैं। यह कृपा और दया की परम मूर्ति हैं। इन्होंने दायें हाथ में माला तथा बाये
हाथ में कमण्डलु को धारण किया है।
माँ जगदम्बा के तीसरे स्वरूप को चंद्रघण्टा
के नाम से जाना जाता है। यह भक्तों को अभय देने वाली तथा परम कल्याणकारी हैं। यह दावनों
व राक्षसों को नष्ट कर धर्म की रक्षा करती है। इनके मस्तक पर घण्टे के रूप में अर्धचन्द्र
विराजित हो रहा है, यह चंद्रघण्टा के नाम से अखिल जगत में प्रसिद्ध हैं।
इनके दस हाथ है और खड्ग आदि अस्त्रों को धारण किए हुए हैं तथा सिंह में सवार हैं। यह
भयानक घण्टे की नाद मात्र से शत्रु व दैत्यों का वध करती हैं।
माँ जगदम्बा का चतुर्थ रूप कूष्माण्डा के नाम से सुविख्यात है। यह संसार
के सभी जीवों पर दया करने वाली हैं जो सूर्य लोक की वासी हैं। यह अति तेज से प्रकाशित
हैं। अखिल ब्रह्मण्ड की जननी होने के कारण इन्हें कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है।
माँ अष्टभुजाओं से युक्त है तथा हाथों में कमण्डल, धनुष, बाण, कमल, पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र, गदा लोक कल्याण हेतु धारण कर
रखा है। यह सिंहारूढ़ हैं तथा शत्रु, रोग, दुःख, भय को दूर करने वाली है।
माँ जगदम्बा के पांचवे रूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है। यह भगवान
स्कन्द की माता है। इन्होंने दायीं तरफ की नीचेवाली भुजा से भगवान स्कन्द को गोद लिया
हुआ है। यह पद्म पुष्प, वरमुद्रा से युक्त हैं तथा भक्तों को अभीष्ट फल देने
वाली हैं।
माँ जगदम्बा का षष्ठ्म स्वरूप कात्यायनी के नाम से सुविख्यात है। यह महिषासुर
का मर्दन करनी वाली हैं। जो साक्षात् त्रिदेवों (ब्रह्म, विष्णु, महेश) के अंश से प्रकट हुई हैं। परम तेजस्वी, माँ कात्यायनी की पूजा सबसे पहले महर्षि कात्यायन ने की, तब से यह कात्यायनी के नाम सुप्रसिद्ध हैं। माँ चार भुजाओं वाली हैं यह अभय मुद्रा, वरमुद्रा,
तलवार तथा कमल पुष्प को अपने हाथों में धारण किए हुए हैं। यह सिंहारूढ़ तथा भक्त
को अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष मनोवांछित फल देतीं हैं।
कालरात्रि
माँ भगवती का सातवां रूप है। भक्तों के हितार्थ माँ अति भयानक कालिरात्रि के रूप
मे प्रकट होती हैं। माँ चार भुजाओं और त्रिनयन स्वरूप हैं जो, अत्यंत भयंकर व अतिउग्र हैं, यह घने अंधकार की तरह है। इनकी नासिकाओं से अग्नि की
अति भयंकर ज्वालाएं प्रकट हो रही है। यह गर्दभारूढ़ है। इनके पूजन से सभी प्रकार के
कष्ट रोग दूर होते है व सुख शांति प्राप्ति होती है।
माँ भवानी आँठवें स्वरूप में महागौरी के रूप में प्रकट हुई हैं। यह चंद्र
और कुन्द के फूल की तरह गौर हैं। इसी कारण इन्हें महागौरी कहा जाता है। माँ चार भुजाओं
वाली वृष में आरूढ़ हैं। यह अभयमुद्रा, वरमुद्रा, त्रिशूल तथा डमरू को अपने हाथों में धारण किए हुए हैं तथा कठोर तप से भगवान शंकर
को प्राप्त किया था। इनकी आराधना से भक्तों को मनोवांछित फल प्राप्त होते हैं।
भवानी दुर्गा का नवां स्वरूप माँ सिद्धिदात्री का है। यह सभी सिद्धियों
को देने वाली हैं। माँ चतुर्भुजी हैं जो कमल के आसन पर विराजित हैं यह सिंहारूढ़ हैं
तथा अपने हाथों मे चक्र, गदा,शंख, और कमल को धारण किए हुए हैं। यह सर्वसिद्धि देने वाली और कष्टों दूर करने वाली
हैं।
वैदिक रीति से दुर्गा पाठ का फल व महत्वः-
जो साधक सम्पूर्ण वैदिक
रीति से भगवती दुर्गा की आराधना किसी ब्राह्मण द्वारा प्रति वर्ष करवाता है, उसके घर व जीवन से घने तिमिर का नाश हो जाता हैं। उसके अविद्या, दरिद्रता,
विष जैसे- भाँग, अफीम, धतूरे का विष तथा सर्प, बिच्छू आदि का विष समाप्त हो जाता है। मंत्र-यंत्र, कुलदेवी, देवता, डाकिनी, शाकिनी, ग्रह, भूत, प्रेत बाधा,
राक्षस, ब्रह्मराक्षस, चोर, लुटेरे, अग्नि,जल, शत्रु भय से मुक्ति मिल जाती है, स्त्री, पुत्र, बांधव, राजा से पीड़ा हो तो छुटकारा मिलता है। ये सभी बाधाएं शांत हो जाती हैं। रोटी-रोजगार
में तरक्की प्राप्त होती है तथा संतान के वैवाहिक कार्यो में सफलता प्राप्त होती है
व रोगों का नाश होता है आदि अनेकों मनोंवांछित फल प्राप्त होते हैं।
पूजा का संक्षिप्त विधान
माँ दूर्गा की पूजा में
शुद्धता, संयम और ब्रह्मचर्य अति महत्वपूर्ण है। इस पूजन में कलश स्थापना राहुकाल, यमघण्ट काल में नहीं करनी चाहिए। नव दिन पर्यन्त घर व देवालय को विविध प्रकार के
मांगलिक सुंगधित पुष्पों और विविध प्रकार के पत्तों से आलंकृति करना चाहिए। सर्वतोभद्र
मण्डल, स्वास्तिक,
नवग्रहादि,
ओंकार आदि की स्थापना शास्त्रोक्त विधि से ही करना चाहिए। तथा स्थापित सभी देवी-देव
समूहों का आवाह्न उनके “नाम मंत्रो” द्वारा करके, षोडषोपचार विधि से अर्चना करनी चाहिये।
इस पूजा मे नौ दिन तक अखण्ड ज्योति जलाने का विधान भी है, अतः साधकों को इस बात को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए। कि दीप हमारा कर्म साक्षी
है, अतः उसे साक्षात् ब्रह्म का प्रतिरूप मानना चाहिए। अतः अखण्ड ज्योति में शुद्ध
देसी घी, या गाय का देशी घी को प्रयोग में लनेा चाहिए। अखण्ड ज्योति को सर्वतोभद्र मण्डल
के अग्निकोण में स्थापित करने का विधान होता है।
व्रत विधानम्ः- प्रतिवर्ष श्रद्धालू व भक्त साधकों द्वारा नवरात्रों में व्रत
किये जाते हैं। जिसमें पहले, अंतिम और पूरे नव दिनों तक व्रत रखने का विधान भी हैं।
व्रत में शुद्ध,
शाकाहारी पदार्थों का ही प्रयोग करना उत्तम है। व्रती स्त्री-पुरूषों को प्याज, लहसुन आदि तामसिक तथा मांसाहारी पदार्थों का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए। नवरात्री
में अनुष्ठान की सम्पन्नता के समय नौ कन्याओं का पूजन साक्षात नौ देवी के रूपों मे
किया जाता है। अतः उन्हें श्रद्धा के साथ समर्थानुसार भोजन व दक्षिणा देकर प्रणाम करना
चाहिए।
नौ रात्रि व्रत मे खाने योग्य खाद्य पदार्थ:-
आलू, सिंघारें का आटा, देशी घी गाय का, फलों में आम, केले, संतरे, सेब, अंगूर, आदि तथा सूखे मेवे जैसे-काजू, अखरोट, बादाम, किसमिस, आदि प्रयोग करें तथा बेसन से बने लड्डू और अन्नयुक्त पदार्थ व्रत में कदापि प्रयोग न करें।
नवरात्रि व्रत के समय यह न करें:- अर्थात् इन पदार्थो को दृढ़ता
से त्याग करें जैसे- पेय, कोक, टाफियां, लहसुन, प्याज, नमक, मांस, मिर्च, मसाले, मद्य, सिगरेट, तम्बाकू, गुटखा, आदि तामसिक खाद्यों का प्रयोग व्रत को भंग कर देते हैं। इसके अतिरिक्त व्रत पालन
के समय क्रोध,
चिंता आलस्य, कदापि न करें। सुगन्धित तेल, साबुन के प्रयोग और क्षौर कर्म से बचना चाहिए।
नवरात्री में रंगों महत्त्व -रंग हमारे मनः शक्ति को बड़ी
तीव्रता से प्रभावित करते हैं। इसलिए साधकों को और सर्वसाधारण व्यक्ति को प्रत्येक
दिन उसी रंग के कपड़े धारण करने चाहिए। जैसे-पहले नवरात्रि के दिन सफेद व लाल रंग के
कपड़े अच्छे माने गए हैं। दूसरे में पीच व हल्का पीला केशरिया, रंगों को शुभ माना गया है और तीसरे दिन लाल, चैथे में सफेद, नीला, रंग, पांचवें में लाल, सफेद,, छठे में हरा, लाल, सफेद, सातवें मे लाल, नीला, आठवे में लाल, पीला, सफेद, और गुलाबी,
रंग तथा नौवें नवरात्रि में सफेद व लाल, रंग के कपड़ों को शुभप्रद माना गया है।
संक्षिप्त पूजन सामग्री का विवरण:- रौली 250ग्राम, मौली-11, शुद्ध देशी गाय का घी पंचमेवा, पंचपात्र, कलश के लिए सोने, चाँदी, तांबे या मिट्टी का घड़ा, जो प्राप्त हो, अखण्ड ज्योति हेतु दीया, जनेऊ, सुपारी, पानके पत्ते, लौंग, इलायची, नारियल कच्चा,नारियल सूखा, अक्षत (चावल), गोलागिरी, चीनी बूरा, सुगन्धित धूप, अगरबत्ती,केसर, श्रृंगार की सामग्री, साड़ी, दूध, दही, शहद, रंग- लाल,
पीला, हरा, काला, आदि, पंचरत्न, पंचगब्य, पंचपल्लव-लाल पुष्प, अष्टगंध, कपूर, जौ, काले तिल,
रूई, मीठा, 5 मीटर लाल व सफेद, कपड़ा, पांच प्रकार फल, ब्राह्मणों के लिए पंच वस्त्र और सोने, चाँदी या ताँबे के पात्र आदि। जौ बोने के लिए गंगाजी की रेता बैठने के लिए आसन
जिसमें कपड़ा न लगा हो, ऊनी, या फिर मृग, बाघ चर्मादि का हो तो शुभ है।
नोटः हवन सामग्री पूर्णाहुति से दो दिन पहले ही रख लेना
चाहिए।
निषेधः श्रीगणेश जी को तुलसी व दुर्गा को दुर्वा (हरी घास)
चढ़ाने का विधान नहीं हैं।
पूजा विधान: प्रातःकाल नित्य स्नानादि
कृत्य से निवर्त होकर पूजा के लिए पवित्र वस्त्र पहन कर उपरोक्त पूजन सामग्री
व श्रीदुर्गासप्तशती की पुस्तक ऊँचे आसन में रखकर, पवित्र आसन में पूर्वाविमुख या उत्तराभिमुख होकर भक्तिपूर्वक बैठे और माथे पर चन्दन
का लेप लगाएं,
पवित्री मंत्र बोलते हुए पवित्री करण, आचमन, आदि को विधिवत करें। तत्पश्चात् दायें हाथ में कुश आदि द्वारा पूजा का संकल्प करे।
षड़षोपचार पूजन करने की विधि
-
निम्न मंत्रों से तीन
बार आचमन करें।
मंत्र- ऊँ केशवाय नमः, ऊँ नारायणाय नमः, ऊँ माधवाय नमः
तथा ऊँ हृषिकेषाय
नमः बोलते हुए हाथ धो लें।
आसन धारण के मंत्र- ऊँ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना
धृता। त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरू चासनम्।।
पवित्रीकरण हेतु मंत्र - ऊँ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि
वा। यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षंतद्बाह्याभ्यन्तरं
शुचि।।
चंदन लगाने का मंत्रः- ऊँ आदित्या वसवो रूद्रा विष्वेदेवा
मरूद्गणाः। तिलकं ते प्रयच्छन्तु धर्मकामार्थसिद्धये।।
रक्षा सूत्र मंत्र - (पुरूष को दाएं तथा स्त्री
को बांए हाथ में बांधे)
मंत्रः- ऊँ येनबद्धोबली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।तेनत्वाम्अनुबध्नामि
रक्षे माचल माचल ।।
दीप जलाने का मंत्रः- ऊँ ज्योतिस्त्वं देवि लोकानां
तमसो हारिणी त्वया। पन्थाः बुद्धिष्च द्योतेताम् ममैतौ तमसावृतौ।।
संकल्प की विधिः- ऊँ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः, ऊँ नमः परमात्मने, श्रीपुराणपुरूषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य
श्रीब्रह्मणो द्वितीयपराद्र्धे श्रीष्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे- ऽष्टाविंषतितमे
कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे ....................श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफलप्राप्तिकामः
अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुकषर्मा अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो....................
आदि मंत्रो को शुद्धता से बोलते हुए शास्त्री विधि से पूजा पाठ का संकल्प लें।
प्रथमतः श्री गणेश जी का ध्यान, आवाहन, पूजन करें।
श्री गणश मंत्रः- ऊँ वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटिसमप्रभ। निर्विध्नं कुरू मे देव सर्वकायेषु सर्वदा।।
कलश स्थापना के नियम:- पूजा हेतु कलश सोने, चाँदी, तांबे की धातु से निर्मित होते
हैं, असमर्थ व्यक्ति मिट्टी के कलश का प्रयोग करत सकते हैं। ऐसे कलश जो अच्छी तरह पक
चुके हों जिनका रंग लाल हो वह कहीं से टूटे-फूटे या टेढ़े न हो, दोष रहित कलश को पवित्र
जल से धुल कर उसे पवित्र जल गंगा जल आदि से पूरित करें। कलश के नीचे पूजागृह में रेत
से वेदी बनाकर जौ या गेहूं को बौयें और उसी में कलश कुम्भ के स्थापना के मंत्र बोलते
हुए उसे स्थाति करें। कलश कुम्भ को विभिन्न प्रकार के सुगंधित द्रव्य व वस्त्राभूषण
अंकर सहित पंचपल्लव से आच्छादित करें और पुष्प, हल्दी, सर्वोषधी अक्षत कलश के जल में छोड़ दें। कुम्भ के मुख पर चावलों से भरा पूर्णपात्र
तथा नारियल को स्थापित करें। सभी तीर्थो के जल का आवाहन कुम्भ कलश में करें।
आवाहन मंत्र करें: -ऊँ कलषस्य मुखे विष्णुः कण्ठे
रूद्रः समाश्रितः। मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः।।
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वति । नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं
कुरू ।।
षोडषोपचार पूजन प्रयोग विधि -
(1) आसन (पुष्पासनादि)-
ऊँ अनेकरत्न-संयुक्तं नानामणिसमन्वितम्। कात्र्तस्वरमयं दिव्यमासनं
प्रतिगृह्यताम्।।
(2) पाद्य (पादप्रक्षालनार्थ जल)
ऊँ तीर्थोदकं निर्मलऽच सर्वसौगन्ध्यसंयुतम्। पादप्रक्षालनार्थाय
दत्तं ते प्रतिगृह्यताम्।।
(3) अघ्र्य (गंध पुष्प्युक्त जल)
ऊँ गन्ध-पुष्पाक्षतैर्युक्तं अध्र्यंसम्मपादितं
मया।गृह्णात्वेतत्प्रसादेन अनुगृह्णातुनिर्भरम्।।
(4) आचमन (सुगन्धित पेय जल)
ऊँ कर्पूरेण सुगन्धेन वासितं स्वादु षीतलम्। तोयमाचमनायेदं पीयूषसदृषं पिब।।
(5) स्नानं (चन्दनादि मिश्रित जल)
ऊँ मन्दाकिन्याः समानीतैः कर्पूरागरूवासितैः।पयोभिर्निर्मलैरेभिःदिव्यःकायो हि
षोध्यताम्।।
(6) वस्त्र (धोती-कुत्र्ता आदि)
ऊँ सर्वभूषाधिके सौम्ये लोकलज्जानिवारणे। मया सम्पादिते
तुभ्यं गृह्येतां वाससी षुभे।।
(7) आभूषण (अलंकरण)
ऊँ अलंकारान् महादिव्यान्
नानारत्नैर्विनिर्मितान्। धारयैतान् स्वकीयेऽस्मिन् षरीरे दिव्यतेजसि।।
(8) गन्ध (चन्दनादि)
ऊँ श्रीकरं चन्दनं दिव्यं
गन्धाढ्यं सुमनोहरम्। वपुषे सुफलं ह्येतत् षीतलं प्रतिगृह्यताम्।।
(9) पुष्प (फूल)
ऊँ माल्यादीनि सुगन्धीनि
मालत्यादीनि भक्त्तितः।मयाऽऽहृतानि पुष्पाणि पादयोरर्पितानि ते।।
(10) धूप (धूप)
ऊँ वनस्पतिरसोद्भूतः
सुगन्धिः घ्राणतर्पणः।सर्वैर्देवैः ष्लाघितोऽयं सुधूपः प्रतिगृह्यताम्।।
(11) दीप (गोघृत)
ऊँ साज्यः सुवर्तिसंयुक्तो
वह्निना द्योतितो मया।गृह्यतां दीपकोह्येष त्रैलोक्य-तिमिरापहः।।
(12) नैवेद्य (भोज्य)
ऊँ षर्कराखण्डखाद्यानि
दधि-क्षीर घृतानि च। रसनाकर्षणान्येतत् नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम्।।
(13) आचमन (जल)
ऊँ गंगाजलं समानीतं सुवर्णकलषस्थितम्।
सुस्वादु पावनं ह्येतदाचम मुख-षुद्धये।।
(14) दक्षिणायुक्त ताम्बूल (द्रव्य पानपत्ता)
ऊँ लवंगैलादि-संयुक्तं ताम्बूलं दक्षिणां तथा। पत्र-पुष्पस्वरूपां हि गृहाणानुगृहाण माम्।।
(15) आरती (दीप से)
ऊँ चन्द्रादित्यौ च धरणी
विद्युदग्निस्तथैव च। त्वमेव सर्व-ज्योतींषि आर्तिक्यं प्रतिगृह्यताम्।।
(16) परिक्रमाः-
ऊँ यानि कानि च पापानि
जन्मांतर-कृतानि च। प्रदक्षिणायाः नष्यन्तु सर्वाणीह पदे पदे।।
1. भागवती एवं उसकी प्रतिरूप देवियों की एक परिक्रमा करनी चाहिए।यदि चारों ओर परिक्रमा
का स्थान न हो तो आसन पर खड़े होकर दाएं घूमना चाहिए।
क्षमा प्रार्थना:-
ऊँ आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव न जानामि भक्त एष हि क्षम्यताम्।।
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम। तस्मात्कारूण्यभावेन भक्तोऽयमर्हति क्षमाम्।।
मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं तथैव च। यत्पूजितं मया ह्यत्र परिपूर्ण तदस्तु मे।।
ऊँ सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पष्यन्तु मा कष्चिद् दुःख-भाग्भवेत् ।।
(सभी सुखी हों, सभी निरोग हों, सभी सर्वत्र कल्याण ही कल्याण देखें एवं कोई भी कहीं दुख का भागी न हो।)
हवन सामग्री का संक्षिप्त विवरणः-
गुगल, गिलौह जौ,
तिल काले,,
जटामासी, शक्कर, हवन सामग्री, समुद्री झाग, छायापात्र,
पूर्णपात्र,
ब्रह्मण वस्त्र, नवग्रह समिधा, चावल, देषी घी, केसू के फूल, बेलगिरी, अनारदाना, चंदन बुरादा, कमल का फूल, काली मिर्च,
बादाम, पंचमेवा, कमल गट्टा,
नीला थोथा,
मोती, मूंगा, चांदी का सिक्का, पालक, गन्ना, खीर, हलवा, मिश्री, मक्खन, भोजपत्र, दूर्वा, अगर, तगर, सतावर, कपूर, आदि।
हवन कुण्ड निर्माण विधि:-
विविध प्रकार के अनुष्ठानों
में भिन्न-2 प्रकार के हवन कुण्डों का निर्माण जरूरत के हिसाब से किया जाता
है जैसे-देवी-देवताओं की प्रतिष्ठा, शांति, एवं पुष्टि कर्म, वर्षा हेतु,
ग्रहों की शांति, वैदिक कर्म और अनुष्ठान के अनुसार एक पांच, सात और अधिक हवन कुण्डों का निर्माण होता है। जैसे- वृत्तकार, चैकोर, पद्माकार,
अर्धचंद्राकार, योनिकी, चंद्राकार, पंचकोण, सप्त, अष्ट और नौ कोणों वाला आदि। सामान्यतः चैकोर कुण्ड का ही प्रयोग होता है, जो त्रि मेंखला से युक्त होता हैं तथा जिनके ऊपरी मध्य भाग में योनि होती है जो
पीपल के पत्ते के समान होती है। उसकी ऊँचाई एक अंगुल और चैड़ाई आठ अंगुल तक विस्तारित
करनी के नियम हैं। ऐसे कुण्ड जो ज़मीन मे खोदकर बनायें जाते हैं या पहले से निर्मित
हैं उन्हें हवन के दो तीन दिन पूर्व सुन्दर और स्वच्छ कर लेना चाहिए। ऐसे कुण्ड जिनमें
दरारें हों, कीड़े या चींटी आदि से युक्त हो जल्दबाजी में ऐसे कुण्ड में हवन कदापि न करें, इससे पुण्य की जगह पाप होगा और बिना वैदिक उपचारों के जो हवन किया जाता है उसे
दैत्य प्राप्त करते हैं।
समिधा:- जिसे हम लकड़ी कहते हैं, उसे प्रयोग में लाने से पहले धूप में सुखा लें वह पवित्र और कीट आदि चिंटियों से
युक्त नहीं हों यह निश्चित होने पर ही उन्हें प्रयोग में लें, अन्यथा उन्हें त्याग दें।
सम्पूर्ण वैदिक विधि
का पालन करते हुए पूजा सम्पन्न करें, तद्पश्चात् प्रसादादि वितरित
कर स्वयं प्रसाद पाएं।
विशेष कल्प हेतु आप निम्नांकित मंत्रो का आवश्कता अनुसार प्रयोग कर सकते है :
अगर शादी में अनावश्यक विलम्ब हो रहा है तो इस मंत्र का प्रयोग करते हुए पाठ करे:-
पत्नीं मनोरमां देहि
मनोवृत्तानुसारिणीम्। तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्।।
रोग से छुटकारा पाने के लिए: ॐ रोगानषेषानपहंसि तुष्टा रूष्टा
तु कामान् सकलानभीष्टान्। त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां
प्रयान्ति।।
सौभाग्य प्राप्ति हेतु: देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे
परमं सुखम्। रूपं देहि जयं देहि यषो देहि द्विषो जहि।।
सम्पूर्ण बाधा निवारण हेतु: ॐ सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो, धन धान्य सुतान्वितः | मनुष्यो तप्रसादेन,
भविष्यति न संशयः ॐ ||
माँ जगदम्बे जगत्जननी इस
शारदीय नवरात्रि मे आपकी सभी मनोकामनाये पूर्ण करे |
शुभेच्छु
पंडित उमेश चन्द्र पन्त, पवित्र ज्योतिष केंद्र
संपर्क सूत्र : 011-26496501
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